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عادل العامل |
الشاعر : |
تفعيلة |
القصيدة : |
45119 |
رقم القصيدة : |
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::: عواء في غابة الذاكرة
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أينَ راحَ الزمانُ..
الذي..
راحَ؟
في داخلي؟
أمْ مضى..
بدَداً..
كالدُّخانْ؟!
أمسِ..
كانتْ عصافيرُ..
غابتِنا..
تلتقي فوقَ أكتافِنا
والصِّبا يرتقي..
سلَّمَ الليلِ..
أوْ يمتطي..
نجمةً..
أو يعودُ إلى الأرضِ..
بحثاً..
عَن أرْنبةٍ..
عِندَ نافذةٍ..
شَارِدَه
كانَ لي..
رئةٌ بارده
تَتنفَّسُ رائحةَ العُشْبِ..
قلبٌ يُحبُّ فتاةً..
لها وجهُ أيَّاميَ..
العَذْبةِ..
النادرة
كانَ لي..
ألفُ أمنيةٍ..
حائره
كانَ لي..
ذاكره
عشتُ..
في غابتي الشاعريةِ..
ذئباً نبيلاً..
أرى صِفَتي..
في عيونِ الخرافِ..
ارتياحاً..
إلى أنني..
لا أرى..
أنها وَجْبَةٌ..
عابره
أكتفي..
حيثُ لا ينبتُ..
العُشْبُ..
بالرائحه
أختفي..
مِنْ نهادِ التَعاسات..
في البارحةْ
وعن الناسِ..
في التهمةِ..
الصالحهْ
أعرفُ..
الآنَ..
أنِّي وحيدٌ..
كساريةٍ..
في العراءِ..
وأنِّي غريبٌ..
وأني مُريبٌ..
كأرملةٍ..
لم تَزَلْ غضًّةً..
وسْطَ أحزانها..
صابره
دونما أيِّ أمنيةٍ..
دونما ذاكره
أينَ راحَ..
الزمانُ..
الذي راحَ؟
في داخلي؟
أمْ مضى..
بدَداً..
كالدُّخانْ؟!
أينَ..
راحَ..
الزمانْ؟!
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