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عادل العامل |
الشاعر : |
تفعيلة |
القصيدة : |
45118 |
رقم القصيدة : |
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::: مكاشفات في عراءِ اللغةِ اليومية
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إذا كُنْتِ..
أنتِ..
التي طالَ شَوقي إليها
وخيَّبْتِ لي أملي
ما الذي أرتجيهِ..
إذَنْ..
والمسافاتُ مُجدِبةٌ..
والزمانُ قصيرْ؟!
....................
....................
ما قيمةُ..
أنْ أمنحَكِ القلبَ..
ويمنحَكِ الغيرُ..
الكلماتِ الجوفاءْ
فَتمرِّينَ على جَسَدي..
المطعونِ..
لتأكُلَ مِنْهُ..
بُغاثُ الطيرِ..
ويَلعنَهُ السُّفَهاءْ؟!
أيتها الشمسُ..
الغاربةُ..
انتظريني
وخذيني
بينَ يديكِ الحانيتينِ..
إلى حيثُ يكونُ الحزنُ..
مخاضاً..
لغدٍ أجملَ..
أجملَ..
والحبُّ..
سَماءْ!
أَحْرَقَني ألمي..
فارقني..
شوقي..
للماءْ
مُنذُ أنْ فارَقَني..
وجهُ حبيبي..
حبيبي..
الحائرِ..
ما بينَ الأسْماءْ
فلماذا أحيا..
وأنا لا أحيا..
زَمني..
ومكاني..
وهَوايَ..
هواءْ؟!
أيتها الشمسُ..
الغاربةُ..
انتظريني..
ودَعيني..
أغفو..
بينَ يديكِ..
قليلاً..
فأنا أتعبني..
الأصحابُ..
وأبناءُ الكلبِ..
وامرأةٌ..
يَتَساوى..
في الحُبِّ..
لديها..
النَّحْلَةُ..
والدبُّورْ!
فالقلبُ..
برارٍ مُوحشةٌ..
تتناثرُ فيها..
الأشلاءُ..
وروحي تنُّورْ!
فلماذا الأرضُ..
تَدورْ؟!
ولماذا هذا الوردُ المتفتِّحُ..
مِثلَ وجوهِ الحمقى..
كلَّ صباحٍ..
وغناءُ العُصفورْ؟!
ولماذا السَّهَرُ..
الأشواقُ..
الذَّوَبانُ..
إذا كانَ الفائزُ..
في الآخَرِ..
في حَلباتِ السَّبْقِ..
وحيدَ القِرْنِ..
وأجملُ أشعارِ الحُبْ..
الكلمات العُورْ؟!
دَعي عنكِ..
هذا العراءَ..
ارْتَدي حالةً..
ودَعيني
فما عُدْتِ..
عندي..
سوى امرأةٍ..
من عجينِ
يشكلُّها شَبَقي..
مثلما شاءَ..
أو خيبتي..
أو حنيني
فالمسافاتُ..
مِنْ غيركِ..
الآن..
مجدبةٌ
ثمَّ أنَّ الزمانَ..
قصير!
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